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छाहौं चाहति छांह !

SATORI
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रुद्र के दर्शन किये.??… पानी में तर फेंटा बांधे कुएं की छाया में बैठे बूढ़े साधू ने सवाल दागा।
क्या बाबा.!! .. हलक में कांटे उगे हैं और तुम्हें ठिठोली सूझ रही है। झुंझलाते हुए मैंने पानी के लोटे में मुंह अड़ा दिया। …
बाबा कनखियों से मुस्कराये। …..
देख ले देख ले …. फिर न कहना नहीं बताया!!
क्या रुद्र …कैसा दर्शन.. किसकी बात कर रहे हो ?? पानी ढकोल कर मैं कुछ संभल गया था।
बाबा चटक कर उठे और मुझे खींच कर खुली सड़क पर ले आए।
अपने सर के ऊपर देख ! … रुद्र कैसे ठठा रहा है। जेठ का सूरज साक्षात रुद्र है। … कितना दुर्धर्ष है इसका अट्टहास। सबकी सिटृटी पिट्टी गुम है। क्या आदमी क्या, परिंदा क्या , क्या जीव क्या कीट। अपनी आदतें भूल, सब मैदान छोड़ भागे हैं।
सन्नाटी सड़क पर बाबा का ठहाका गूंज रहा था।… मैं तो चला…. तू भी दर्शन कर और छाया में छिप जा, जेठ के सूरज से पंगा नहीं लेने का… समझा।
बूढ़े साधू ठीक कहते हैं। ज्येष्ठ के सूरज जैसा ही होता होगा वैदिक रुद्र।
ज्येष्ठ तो वैसे भी वृषभ (ज्योतिषीय राशि) पर सवार हो कर आता है। वृषभ अर्थात रुद्र का वाहन तो वैसा ही रौद्र रुप। …. सूर्य यूं तो दिव्य भी है, मनभावन भी। बिला नागा जाने कब से प्रकृति को चेतना की डाक बांट रहा है लेकिन ज्येष्ठ में इसका मिजाज कुछ बदल जाता है। पौ फटते ही सूर्य चढ़ आया है हंकड़ता हुआ। तमतमाये सूरज के साथ दिन सुबह से आग उगलने लगता है। पूरी प्रकृति को अगियारी में बिठाये नाच रहा है सूरज। प्रत्यक्ष देवता अपने हजारों हाथों से अग्निबाण बरसा रहा है। ज्येष्ठ सूर्य के पौरुष का लाइव टेलीकास्ट है। ज्येष्ठ की पूरी चित्रकारी सूर्य करता है। प्रकृति का सबसे तेजस्वी देवता जब कुछ तय करता है तो क्या मजाल कि कोई कुछ बोल सके। सूर्य का आदेश है कि सबको एक धूसर पीले रंग में डूबना होगा। बसंत का पीलापन नहीं आग का पीलापन। जिसको पकना हो आम की तरह अकेले पके यानी रस चाहिए तो धूप पिये। ज्येष्ठ की भोर से ही चारो तरफ निर्गुण बिखर जाता है। प्रकृति और इसके सभी सदस्य अपनी हनक, सनक और तुनक छोड़ कर दुबक जाते हैं। एक अनमनी शांति, अकेलापन। प्रकृति का सबसे बड़ा तपस्वी, अपनी जटा खोले नाच रहा है।

इस पश्चिमा वायु का भी चरम है। अब तो यह बसंत में ही लौटेगी। कट चुके सुनसान खेतों में सूरज अपनी इस सहचरी के साथ क्रीड़ा करता है। मगर इस क्री़ड़ा को देखने का बूता किसमे है। इस समय तो सबको बस छांह का एक टुकड़ा चाहिए। पत्तों की छांह, न मिले तो दीवाल की छांह, सर पर छोटी सी किताब रखकर ही कुछ बचत हो जाए, कुछ नहीं तो आंखों ऊपर हथेलियों का छज्जा ही सही। जरा सी छांह मिल जाए बस। ….. देख दुपहरी जेठ की छाहौं चाहति छांह।
ज्येष्ठ में इसी छांह की तो ले दे है। सूर्य के रौद्र को देख कर छांह को अगोरती प्रकृति अहिंसक तपस्वी बन जाती है। पेड़ की फुनगी पर बैठा बाज पानी तलाश रहा है। ठीक नीचे बैठी नन्हीं सी चिडि़या भी चोचें खोले बेचैन है। पत्ते की ओट में एक कीड़ा दुबका जा रहा है। प्रकृति की भोजन श्रंखला फिलहाल स्थगित है। सामने की टीन में बंदर दुबका है। अलसाया हलवाई पहचानता है कि कल इसी ने पांच किलो खोए का सत्या नाश किया था। मगर आग दरिया पार कर बंदर को भगाने कौन जाए। कार से चुटहिल कुत्ता् कार के ही नीचे घुस गया है। कार चलेगी तो भाग निकलेंगे तब तक छांह तो ले ली जाए। ….. डिस्क वरी चैनल पर हाल में ही देखी एक फिल्म याद आ रही है। नामीबिया के रेगिस्ता।न में सूरज आग उगल रहा है। सूखे पेड़ की मरियल छाया में एक तरफ भूखा शेर निढाल पड़ा हांफ रहा है तो पेड़ के दूसरी तरफ हिरनों का परिवार जरा सी छांह में दुबका है। भैंसों का झुंड शेरों को पानी का रास्ता बताता है। … डिस्कवरी चैनल को आज पता चला कि निदाघ ग्रीष्म में प्रकृति अपनी स्वाभाविक हिंसा को बिसरा देती है। बिहारी ने वर्षों पहले देख लिया था। कि ….. कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ, जगत तपोवन सो कियो दीरघ दाघ निदाघ।
सूरज धूप की चादर समेट कर निकल जाता है लेकिन
ज्येष्ठ की रात भी बेहिसाब तपती है। …. बिजली हमेशा की तरह गुल है। सोसाइटी के सारे अहि मयूर मृग बाघ एक साथ निकल आए हैं। हमेशा नाक भौं सिकोड़ने वाले पांडे जी पार्क के कोने में चिपके बतिया रहे हैं। गुस्सा नाक पर रखने वाली श्रीमती सिंह पसीना पोंछते हुए पड़ोसी के ठंडे पानी की तारीफ कर रही हैं। कोई छत पर टंगा है तो कोई पार्क में, तो कोई सड़क किनारे फुटपाथ पर बैठा है। सब प्रकृति की गोद में है। वाह ज्येष्ठ वाह …. तेरी गर्मी के क्या कहने। मेरे आस पास भी एक तपोवन रच गया है।
मैं अचानक बिलबिलाकर करवट लेता हूं बिस्तर में एक तरफ मेरा पसीना प्रिंट बन गया है।
बहुत हुआ निर्गुण और बहुत हुआ तपोवन !!!
अब बस भी करो !!
इतना ताप असह्य है !!
…. बड़बड़ाते हुए मेरी नींद खुल जाती है।
होठों से बेसाख्ता राहत इंदौरी का शेर फूट पड़ता है धूप बहुत है मौसम जल-थल भेजो न / बाबा मेरे नाम का बादल भेजो न।….
अचानक दरवाजा खड़क गया है। …..आसमान में कुछ बज रहा है।
एक हल्का सा ठंडा झोंका सहला गया है।
मैं जाग कर बाहर दौड़ पड़ता हूं।…. उजाला होने को है। पूरब के आकाश में काली चित्रकारी चल रही है।
हुर्रे ..!!!!! आषाढ़ की डाक आ गई !!!!
कहीं एक लोक निर्गुण बज उठा है।
जोगी की मड़ैया बाजै अनहद बाजन

तहं नाचै सुरति सोहागिन हो राम

गगन में बदरा गरजै, रिमझिम रिमझिम मेहा बरसै

बिच बिच बिजुरी चमकै हो राम।

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