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चिप-चिप… छप-छप !!

SATORI
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गुड मॉर्निग !! ….जुही ने गमले से उझक कर कहा और कुछ बूंदे बिखेर दीं। पाम ने बड़ी पत्तियां हिलाईं और पानी पानी होते हुए कहा, गुड मॉर्निग। नन्‍हीं गौरैया ने पंख फड़फडाकर पानी झाड़ा और कहा गुड मॉर्निंग। धुला पुंछा आकाश, ठंडी भीगी सड़क, छज्‍जे से टप टप….और हर तरफ से सुबह की शुभकामनायें। आषाढ़ रात को अपना आशीर्वाद दे गया है पहली बौछार से नहाई धोई प्रकृति खिलंदड़ मुनिया की तरह चहक रही है। पुरवा का एक ठंडा झोंका सरसराता हुआ निकला और ना‍सिका के द्वार पर सोंधी गंध के सिगनेचर छोड़ गया।

मेघोरदर-विनिर्मुक्‍ता: कल्‍हार सुख शीतला

शक्‍यमन्‍जलिभि: पातुं वाता केतकगन्धन:। ( मेघों के समूह से निकली, कमल कल्‍हार से शीतल हुई और केतकी की गंध से भरी इस वायु को अंजिल में भर लेना चाहिए।.. वाल्‍मीकि रामायण)

अब बाबा वाल्‍मीकि जैसी किस्‍मत तो है नहीं कि कमल (कल्‍हार या कुंज) व केतकी की सुवास से भरा वर्षा ऋतु का पवन गुड मार्निंग बोले।  उमस भरे चिप-चिपे मौसम में मन की ऋतु बदलने के लिए इतना कम है क्‍या कि शीतलता और सोंधी गंध मिल जाए। इस शीतल उपहार के लिए तो अंजुलि बांध लेना ही ठीक है।

…. मगर मन का मौसम इतनी जल्‍दी बदलता कहां है। चेहरे पर शीतल हवा का स्‍पर्श और पीठ पर चिप-चिप। आषाढ़ की पीठ पर जेठ सवार है। जैसे कि फागुन की पीठ पर माघ सवारी करता है। माघ की झुर झुर खत्‍म होते होते आधा फागुन बीत लेता है ठीक उसी तरह जेठ की जलन घटते घटते आषाढ़ खिसक जाता है। जेठ की तपस्‍या का तेज तो आधे आषाढ़ तक चलता है। जेठ व आषाढ़ की संधि पर भयानक गर्मी से व्‍याकुल बाबा कह उठते थे, तप तप ले …. तू तो मृगसिर्रा है। …. तेरी ही पूंछ पकड़ कर आषाढ आएगा। बहुत बाद में पता चला कि जेठ का अंतिम नक्षत्र मृगशिरा है जो खूब तपता है। कहते हैं कि मृग जैसी आकृति वाले इस नक्षत्र का मुंह जेठ में और पूंछ आषाढ़ में है। तपन और शीतलता का यह मृग जेठ व आषाढ़ की सीमा पर कुलांचे भरता है। इसकी धमाचौकड़ी में आषाढ़ का मिजाज ही नहीं मिलता। कभी पछवा का गरम झकोर तो कभी पुरवा की मीठी थपकी। एक टुकड़ी बरसी तो छप छप और गई तो लंबी उमस भरी चिप-चिप…. जितना बरसा वह तवे पर छन्‍न  जैसा। आधा आषाढ़ तो बेचारा जेठ का गुस्‍सा कम करने में ही कुर्बान हो जाता है। आद्रा (नक्षत्र) न हो तो आषाढ़ की पहुनाई का मेघ राग कौन बजाये।  लेकिन मृगशिरा से मुठभेड़ के बिना आद्रा का आनंद  फीका है यह बात तो जायसी की नागमती को भी मालूम थी। तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहंत ॥

मुझे जिस झोंके ने छुआ था वह सौ फीसदी आद्रा का ही रहा होगा। आद्रा ही दिल्‍ली को जेठ के हैंगओवर से मुक्‍त करती है। आद्रा के मेघ को बुला रहे थे रात को लेकिन नींद खुले तब न। वैसे सुबह कोई बहुत घाटे में नहीं गई। धुला पुंछा सवेरा मिला और साथ ही मिली अंजुरी भर सोंधी गंध। अर्थात धरती से जुड़ने का न्‍योता। भगतिन ठीक ही कहती थीं कि आषाढ़ चढ़ा तो सब कुछ जुड़ा। आकाश की शीतलता और धरती की सुरभि के स्‍पर्श के बाद आखिर मौसम से कौन न जुड़ जाएगा। आषाढ़ सबको जोड़ने और जुड़ाने (शीतल) के लिए ही आता है। आषाढ़ी बादल पुकारते फिर रहे हैं कि कि चैत, वैशाख और जेठ का बैरागीपन छोड़ो और एक दूसरे से जुड़ो और सबको जोड़ो।

खगोलिकी भी आषाढ़ को मिथुन राशि के खाते में डालती है। मिथुन अर्थात युगल। आषाढ़ बरसा तो आकाश धरती जुड़े। खेत किसान जुड़े। मेघ बिजली जुड़े। आम जामुन पके-टपके। सक्रियता का कोलाहल गूंज उठा है। प्रकृति कई तरह के जीवों से खिल रही है। घंटों में पूरी जीवन लीला कर लेने वाले जरायुजों (कीट-जिनकी आयु बहुत कम होती है) से लेकर दीर्घजीवी पशु व मनुष्‍य तक सब के लिए यह काम का वक्‍त है।  पीछे पेड़ पर चिडि़यों का बिल्‍डर समुदाय ओवरटाइम में काम कर रहा है। चींटियों की पूरी पांत अपने प्रोजेक्‍ट को वक्‍त पर पूरा करने को बेताब है। जुही, मालती, बेला का परिवार तेजी से बढ़ रहा है। हर तरफ सृजन, उत्‍पादन और जीवन का चक्र चल पड़ा है। आषाढ़ ने गरज बरस कर सबको काम पर लगा दिया है।

मैं भी काम पर लग गया हूं। आषाढ़ को देखने के काम पर। वर्ष की किसी भी ऋतु का आकाश, आषाढ़ के आकाश सा दर्शनीय नहीं होता। जेठ वैशाख में तो ऊपर देखना.. राम राम कहो और सावन या भाद्रपद में जब कुछ दिखे तब न। आकाश दर्शन के मामले में फागुन, बसंत और शरद भी कुछ नरम गरम ही हैं, आषाढ़ जैसा कोई नहीं। आषाढ़ में आकाश की स्‍क्रीन पर पूरा एनिमेशन चलता है। बादलों में तरह तरह के आकार और चेहरे। सूर्य की रश्मियों से रंग व प्रकाश के अनिवर्चनीय स्‍पेशल इफेक्‍ट और अबूझ संगीत। रंग, चित्र, प्रकाश और ध्‍वनि का अतुलनीय संयोजन।

अहो…. आषाढ़ अद्भुत चित्रकार है। ऊषा अभी अभी आकाश को नीले रंग से बुहार कर गई है। मगर पूरब से कुछ मेघ शिशु आ धमके हैं। नीले आंगन में धमा चौकड़ी शुरु हो गई है।  पछुआ ने डपटा तो बेचारे मेघ एक कोने में दुबक गए। लेकिन तब तक उनका दूसरा दल आ पहुंचा गड़गड़ाता हुआ। इसे सूरज के हंकड़ने की भी परवाह नहीं। हठी बादलों ने सूर्य को गुदगुदाना शुरु कर दिया है। मेघों की कोर से सूर्य की लेजर बीम बिखर रही हैं। एक कोने में सूर्य मेघों को समझाने की कोशिश में है लेकिन आकाश सांवला होने लगा है। श्‍वेत बगुलों की एक पांत तेजी से उड़ती हुई निकल जाती है। पपीहे ने टेर लगा दी है। अचानक आषाढ़़ के आकाश का एक कोना गरज उठता है। पूरब से एक पूरा मेघ दल दौड़ पड़ा है, बिजली की खड्ग लेकर। अब कोई फायदा नहीं। … उंह, इन के मुंह कौन लगे… सूर्य भी निकल देता है। खडग-बीजु चमकै चहुँ ओरा । बुंद-बान बरसहिं घन घोरा ॥ …. कुछ बौछारों के बाद मेघ पार्टी तितर-बितर और हंसता हुआ सूर्य फिर सामने, बादलों के छोटे टुकड़े इधर उधर टंगे हैं लेकिन अब सूर्य से दूर दूर हैं। यही लुकाछिपी आषाढ़ में आकाश को विचित्र चित्रशाला बनाती है। निराला का बादल राग बज उठा है।

ऐ अनन्त के चंचल शिशु सुकुमार!कभी किरण-कर पकड़-पकड़कर

चढ़ते हो तुम मुक्त गगन पर, झलमल ज्योति अयुत-कर-किंकर,

सीस झुकाते तुम्हे तिमिरहर— अहे कार्य से गत कारण पर

पावस के इस पहले पाहुन का भीगा भीगा आशीष पाकर पाकर मन हरा हो गया है। आषाढ़ ने जल, वायु, गंध हर तरह से अभिषेक कर दिया है। मैं पूरब की तरफ देखता हूं। सामने के ऊंचे भवन के पीछे एक बड़ा मेघ टंगा है। यह झोंका उस तरफ से ही आया था। उलझन में हूं आषाढ़ को कैसे थैंक्‍यू कैसे बोलूं। शब्‍द भी तो होने चाहिए। अंतत: आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का सूत्र लेकर भारत के एक भव्‍य ग्रंथ मंदिर के सामने माथा टेक देता हूं। कालिदास के मेघदूत की बतकही दोहराकर ही आषाढ़ की कथा पूरी होगी।

तस्मिन्‍नद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्‍त: स कामी,

नीत्‍वा मासान्‍कनकवलयभ्रंशरिक्‍त प्रकोष्‍ठ:।।

आषाढ़स्‍य प्रथमदिवसे मेघमालिश्‍लष्‍टसानुं,

वप्रक्रीड़ा परिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।।

थैंक यू  आषाढ़ जी, थैंक यू आचार्य जी। ….

………..  .

आचार्य का सूत्र … गीता और मेघदूत विश्‍वनाथ जी के मंदिर के घंटे के समान हैं। हर तीर्थयात्री एक बार इनको अवश्‍य बजा जाता है।… (मेघदूत – एक पुरानी कहानी की भूमिका से)


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